Monday, 13 January 2014

मूर्ति का प्राकट्य क्षीर सागर

इस बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी एक बहुत रोचक इतिहास है। मध्ययुग का समय था मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था। अकबर अपने भारी श्रम, बुद्धिचातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में रत था जो कि उसके कल्पना लोक की मान्यता के अनुसार कभी भी न ढहे और पीढी-दर-पीढी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहे। एक ओर यह मुग़लों की स्थापना का समय था दूसरी ओर मध्ययुगीन धर्माचार्य एवं सन्तों के अवतरण तथा अभ्युदय का स्वर्ण युग। ब्रज मण्डल में तत्कालीन धर्माचार्यों में महाप्रभुबल्लभाचार्य, श्री निम्बकाचार्य एवं चैतन्य संप्रदाय की मान्यताएं अत्यन्त लोकप्रिय थीं। किसी समय गोवर्धन की तलहटी में एक बहुत प्राचीन तीर्थ-स्थल सूर्यकुण्डएवं उसका तटवर्ती ग्राम भरना-खुर्द (छोटा भरना) था। इसी सूर्यकुण्ड के घाट पर परम सात्विक ब्राह्मण वंशावतंश गोस्वामी कल्याण देवाचार्य तपस्या करते थे। उनका जन्म भी इसी ग्राम में इभयराम जी के घर में हुआ था। वे वंश-तंश श्री बलदेवजी के अनन्य अर्चक थे।

एक दिन श्री कल्याण-देवजी को ऐसी अनुभूति हुई कि उनका अन्तर्मन तीर्थाटन का आदेश दे रहा है। कुछ समय यों-ही बिताया किन्तु स्फुरणा बलवती ही होती जाती। अत: कल्याण-देवजी ने जगदीश यात्रा का निश्चय कर घर से प्रस्थान कर दिया श्री गिर्राज परिक्रमा कर मानसी गंगा स्नान किया और फिर पहुँचे मथुरा,यमुना स्नान, दर्शनकर आगे बढ़े और पहुँचे विद्रुमवन जहाँ आज का वर्तमान बल्देव नगर है। यहाँ रात्रि विश्राम किया। सघन वट-वृक्षों की छाया तथा सरोवर का किनारा ये दोनों स्थितियाँ उनको रमीं। फलत: कुछ दिन यहीं तप करने का निश्चय किया। एक दिन अपने आन्हिक कर्म से निवृत हुये ही थे कि दिव्य हल-मूसलधारी भगवान श्री बलराम उनके सम्मुख प्रकट हुये तथा बोले कि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर माँगो। कल्याण-देवजी ने करबद्ध प्रणाम कर निवेदन किया कि प्रभु आपके नित्य दर्शन के अतिरिक्त मुझे कुछ भी अभीष्ट नहीं हैं। अत: आप नित्य मेरे घर विराजें। बलदेवजी ने तथास्तु कहकर स्वीकृति दी और अन्तर्धान हो गये। साथ ही यह भी आदेश किया कि 'जिस प्रयोजन हेतु जगदीश यात्रा कर रहे हो, वे सभी फल तुम्हें यहीं मिलेंगे, इस हेतु इसी वट-वृक्ष के नीचे मेरी एवं श्री रेवती की प्रतिमाएं भूमिस्थ हैं, उनका प्राकट्य करो'। अब तो कल्याण-देवजी की व्यग्रता बढ गई और जुट गये भूमि के खोदने में, जिस स्थान का आदेश श्री बलराम|दाऊ जी ने किया था।

इधर एक और विचित्र आख्यान उपस्थित हुआ कि जिस दिन श्री कल्याण-देवजी को साक्षात्कार हुआ उसी पूर्व रात्रि को गोकुल में श्रीमद् बल्लभाचार्य महाप्रभु के पौत्र गोस्वामी गोकुलनाथजी को स्वप्न हुआ कि 'जो श्यामा गौ के बारे में आप चिन्तित हैं वह नित्य दूध मेरी प्रतिमा ऊपर स्त्रवित कर देती है। ग्वाला निर्दोष है। मेरी प्रतिमाएं विद्रुमवन में वट-वृक्ष के नीचे भूमिस्थ हैं प्राकट्य कराओ ' यह श्यामा गौ सद्य: प्रसूता होने के बावजूद दूध नहीं देती थी। महाराज श्री को दूध के बारे ग्वाला के ऊपर सन्देह होता था। प्रभु की आज्ञा से गोस्वामीजी ने उपर्युक्त स्थल पर जाने का निर्णय किया। वहाँ जाकर देखा कि श्री कल्याण-देवजी मूर्तियुगल को भूमि से खोदकर निकाल चुके हैं। वहाँ पहुँच नमस्कार अभिवादन के उपरान्त दोनों ने अपने-अपने वृतान्त सुनाये। अत्यन्त हर्ष विह्वल धर्माचार्य हृदय को विग्रहों के स्थापन के निर्णय की चिन्ता हुई और निश्चय किया कि इस घोर जंगल से मूर्तिद्वय को हटाकर क्यों न श्री गोकुल में प्रतिष्ठित किया जाय। एतदर्थ अनेक गाढ़ा मँगाये किन्तु मूर्ति अपने स्थान से, कहते हैं कि चौबीस बैल और अनेक व्यक्तियों के द्वारा हटाये जाने पर भी, टस से मस न हुई और इतना श्रम व्यर्थ गया। हार मानकर यही निश्चय किया गया कि दोनों मूर्तियों को अपने प्राकट्य के स्थान पर ही प्रतिष्ठित कर दिया जाय। अत: जहाँ श्रीकल्याण-देव तपस्या करते थे उसी पर्णकुटी में सर्वप्रथम स्थापना हुई जिसके द्वारा कल्याण देवजी को नित्य घर में निवास करने का दिया गया, वरदान सफल हुआ।

यह दिन संयोगत: मार्गशीर्ष मास की पूर्णमासी थी। षोडसोपचार क्रम से वेदाचार के अनुरूप दोनों मूर्तियों की अर्चना को गई तथा सर्वप्रथम श्री ठाकुरजी को खीर का भोग रखा गया, अत: उस दिन से लेकर आज पर्यन्त प्रतिदिन खीर भोग में अवश्य आती है। गोस्वामी गोकुलनाथजी ने एक नवीन मंदिर के निर्माण का भार वहन करने का संकल्प लिया तथा पूजा अर्चना का भार श्रीकल्याण-देवजी ने। उस दिन से अद्यावधि कल्याण वंशज ही श्री ठाकुरजी की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। यह दिन मार्ग शीर्ष पूर्णिमा सम्वत् 1638 विक्रम था। एक वर्ष के भीतर पुन: दोनों मूर्तियों को पर्णकुटी से हटाकर श्री गोस्वामी महाराजश्री के नव-निर्मित देवालय में, जो कि सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त था, मार्ग शीर्ष पूर्णिमा संवत 1639 को प्रतिष्ठित कर दिया गया। यह स्थान कहते हैं भगवान बलराम की जन्म-स्थली एवं नित्य क्रीड़ा स्थली है पौराणिक आख्यान के अनुसार यह स्थान नन्द बाबा के अधिकार क्षेत्र में था। यहाँ बाबा की गौ के निवास के लिये बड़े-बड़े खिरक निर्मित थे।

मगधराज जरासंध के राज्य की पश्चिमी सीमा यहाँ लगती थीं, अत: यह क्षेत्र कंस के आतंक से प्राय: सुरक्षित था। इसी निमित्त नन्द बाबा ने बलदेव जी की माता रोहिणी को बलदेवजी के प्रसव के निमित इसी विद्रुमवन में रखा था और यहीं बलदेवजी का जन्म हुआ जिसके प्रतीक रूप रीढ़ा (रोहिणेयक ग्राम का अपभ्रंश तथा अबैरनी, बैर रहित क्षेत्र) दोनों ग्राम आज तक मौजूद हैं।

धीरे-धीरे समय बीत गया बलदेवजी की ख्याति एवं वैभव निरन्तर बढ़ता गया और समय आ गया धर्माद्वेषी शंहशाह औरंगजेब का। जिसका मात्र संकल्प समस्त हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्ति भंजन एवं देव स्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था। मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देव स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढा तो उसने बलदेव।जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय। फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर आगे बढ़ा। कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो कोस ही बताई जाती जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बल्देव कोई चमत्कारी देव विग्रह है, किन्तु अधमोन्मार्द्ध सेना लेकर बढ़ता ही चला गया जिसके परिणाम-स्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बेर्रा) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पडा जिससे सैकडों सैनिक एवं घोडे उनके देश के आहत होकर काल कवलित हो गये। औरंगजेब के अन्तर ने स्वीकार किया देवालय का प्रभाव। और शाही फ़रमान जारी किया जिसके द्वारा मंदिर को 5 गाँव की माफी एवं एक विशाल नक्कारखाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कारखाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने के आदेश प्रसारित किया। वहीं नक्कारखाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।
होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव
Holi, Dauji Temple, Baldev
इसी फरमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्र शाह आलम ने सन् 1196 फसली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ाकर यानी 7 गाँव कर दिया। जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फ खाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाह आलम ने एक पृथक् से आदेश चैत सुदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया। शाह आलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ। उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथास्थान रखा एवं पृथक् से भोगराग माखन मिश्री एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनाँक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देवजी के पौत्र गोस्वामी हंसराजजी, जगन्नाथजी को दी। यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्री दाऊ जीमहाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनके अधिकार में है। मुग़ल काल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्णमहावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक् देव स्थान खाते की माल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुग़लकाल से आज तक शाही ग्रांट के नाम से जानी जाती हैं, सरकारी खजाने से आज तक भी मंदिर को प्रतिवर्ष भेंट की जाती है।

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