बलदेव एक ऐसा तीर्थ है जिसकी मान्यताएं हिन्दू धर्मा्वलम्बी करते आये हैं। धर्माचार्यों में श्रीमद् बल्लभाचार्य जी के वंश की तो बात ही पृथक् है। निम्बार्क, माध्व, गौड़ीय, रामानुज, शंकर कार्ष्णि, उदासीन आदि समस्त धर्माचार्यो, में बलदेव जी की मान्यताएं हैं। सभी नियमित रूप से बलदेवजी के दशनार्थ पधारते रहे हैं और यह क्रम आज भी जारी है।
इसके साथ ही एक धक्का ब्रिटिश राज में मंदिर को तब लगा जब ग्राउस यहाँ का कलेक्टर नियुक्त हुआ। ग्राउस महोदय का विचार था कि बलदेव जैसे प्रभावशाली स्थान पर एक चर्च का निर्माण कराया जाय क्योंकि बलदेव उस समय एक मूर्धन्य तीर्थ स्थल था। अत: उसने मंदिर की बिना आज्ञा के चर्च निर्माण प्रारम्भ कर दिया। शाही जमाने से ही मंदिर की 256 एकड़ भूमि में मंदिर की आज्ञा के बगैर कोई व्यक्ति किसी प्रकार का निर्माण नहीं करा सकता था। क्योंकि उपर्युक्त भूमि के मालिक जमींदार श्री दाऊजी हैं। तो उनकी आज्ञा के बिना कोई निर्माण कैसे हो सकता था? परन्तु उन्मादी ग्राउस महोदय ने बिना कोई परवाह किये निर्माण कराना शुरू कर दिया। मंदिर के मालिकान ने उसको बलपूर्वक ध्वस्त करा दिया जिससे चिढ़-कर ग्राउस ने पंडा वर्ग एवं अन्य निवासियों को भारी आतंकित किया। तो आगरा के एक मूर्धन्य सेठ एवं महाराज मुरसान के व्यक्तिगत प्रभाव का प्रयोग कर वायसराय से भेंट कर ग्राउस का स्थानान्तरण बुलन्दशहर कराया। जिस स्थान पर चर्च का निर्माण कराने की ग्राउस की हठ थीं। उसी स्थान पर आज वहाँ बेसिक प्राइमरी पाठशाला है जो पश्चिमी स्कूल के नाम से जानी जाती है। ग्राउस की पराजय का मूक साक्षी है।
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